Thursday, October 13, 2011

पिटाई प्रशांत की
भूमिका मीडिया की
अन्ना हजारे टीम के एक अहम सदस्य प्रशांत भूषन को कल श्रीराम सेना के सदस्यों ने जिस तरह से पीटा , उससे एक बात तो तय हो गयी है कि देश में एक खतरनाक प्रवृति पनपने लगी है। अगर इस प्रवृति को ज़रा भी हवा दी गयी तो ये बहुत संभव है कि यह आगे चलकर एक डेंजर संस्कृति बन जायेगी । अपना देश आज़ाद है और सभी को अपनी बात शान्ति पूर्ण तरीके से रखने का अधिकार है. ये अलग बात है कि हम उससे कितना इत्तेफाक रखते हैं. अगर हमें किसीकी बात पसंद नहीं आती तो हम शांतिपूर्वक तरीके से उसका विरोध कर सकते हैं . लेकिन मारपीट करना ठीक नहीं है. जब से मीडिया का हस्तक्षेप, लोकप्रियता या असर जो भी कहें, ये ज्यादा बढ़ा है तब से हाल ये हो गया है कि हल्का प्रचार पाने के शौक़ीन लोग कुछ भी तिकडम करके ख़बरों में आ जाना चाहते हैं. यह लिखने का मतलब ये बिलकुल नहीं है कि मीडिया के कारण ही सब कुछ उलटा सीधा हो रहा है, बल्कि इसको ऐसा समझा जा सकता है कि ये मीडिया के साइड इफेक्ट हैं. पप्रशांत भूषन की पिटाई के मामले में भी ऐसा ही नजर आ रहा है. अति उत्साही लोग शोर्ट कट रास्ता अपनाकर बस ये चाहते हैं कि किसी तरह से वे टीवी के परदे पर छा जाए. उनकी सोच ये रहती है कि भले ही नेगेटिव पब्लिसिटी हो , मगर होनी चाहिए .वे इस स्दिद्धांत पर काम करते हैं कि बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा. प्रशांत पर हुआ हमला इसीकी परिणीति है. श्रीराम सेना के लोग इससे पहले भी इसी तरह की हरकत कर चुके हैं. जिन लोगों के पास अपनी सोच नहीं होती , अपने सिद्धांत नहीं होते वही लोग इस तरह की हरकत करते रहते हैं. जब अन्ना हजारे ने जब देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन का बिगुल बजाया तब उनके साथ गिने-चुने ही लोग थे. लेकिन अरविन्द केजरीवाल जैसे कुशल मीडिया प्रबंधक उनसे मिले तो यह आंदोलन देश-विदेश में भी चर्चित हो गया, इस भारी सफलता के पीछे मीडिया की भी अहम भूम८इक थी. यही कारण है कि श्रीराम सेना ने भी उसी मीडिया का सहारा लेकर यह हमला किया. मेरे कहने का अर्थ ये बिलकुल नहीं है कि प्रशांत ने कश्मीर को लेकर जो बयान दिया था , वह उचित था या नहीं. मगर मै प्रशांत पर हुए इस तरह के हमले की निंदा करता हूँ और हर शांतिप्रिय नागरिक को करनी चाहिए . अब समय आ गया है जब मीडिया को भी अपनी अहमियत और जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए
दलितों को कब तक सताओगे कभी खुद भी खाना खिलाओगे उत्तर प्रदेश के झांसी जिले में मऊरानीपुर तहसील स्थित मेंडकी गांव में दलित कुंजीलाल आर्य के घर शाम को एक नए भिखारी ने दस्तक दी . भिखारी की सूरत तो जान -पहचान जैसी लगी, मगर उसका पहनावा भिखारियों जैसा बिलकुल नहीं था. हाँ, उसकी हरकतें जरूर भिखारिओं जैसी ही थीं, कुंजीलाल ने ध्यान देकर सुना तो पाया की वह उनसे खाना मांग रहा था. भूख लगी है, खाना मिलेगा ? कुंजीलाल हैरान . मगर गरीबों को भी एक अदा होती है, खुद भूखे रह सकते हैं मगर अपने घर आये किसी भूखे को निराश नहीं लौटा सकते. कुंजीलाल ने ध्यान से देखा तो खाना मांगने वाला देश का युवराज था. यानी की कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी . कुंजीलाल को उस वक्त तो यह एहसास हुआ की वह कितना गलत सोच रहा था , जिसे भिखारी समझा था वह तो टॉप का राजनीतिग्य निकला .मगर सच्चाई ये है की कुंजीलाल पहले सही था. साधारण सा दिखने वाला भिखारी असल में राष्ट्रीय स्टार का भिखारी निकला. दलित प्रेम की आड में राहुल गांधी वोटों की ऐसी भीख मांगने आये थे , जिसके दम पर राजा बना जाता है. अगर डॉक्टर अम्बेडकर दलितों को वोट देने का अधिकार नहीं दिलाते तो कोई राहुल कभी किसी गरीब दलित के घर इस तरह भीख मांगने नहीं जाता . जब-जब देश में भ्रष्टाचार की बात आती है, गरीबी , बेरोजगारी और मंहगाई की बात आती है तब-तब राहुल जी और उनकी माताजी न जाने किस कोने में छिप जाते हैं, जब देश इनकी तरफ आस लगा रहा होता है , जब -जब जनहित के मुद्दों की बात आती है, तब-तब इनकी बोलती बंद हो जाती है. तब ये न तो संसद में नजर आते, न किसी टीवी चैनल पर और न किसी गरीब के घर पर. आम आदमी की नजर में दिल्ली का अहल ये है 'कभी गूंगी ,कभी बहरी ,कभी कुछ होती रहती है . बड़े जनहित के मुद्दों पर ,ये ज़ालिम सोती रहती है. वतन उम्मीद जब करता, कभी मासूम जी इससे , तब यह बेवफा "दिल्ली" , हमेशा रोती रहती है.ये हाल है " दिल्ली " का. और गरीबों के मसीहा बन्ने का नाटक करने वालों का . कभी कोई मीडियाकर्मी , कोई कांग्रेसी या कोई समाजसेवी राहुल गांधी से ये नहीं पूछता की बेचारे दलितों के घर तुम कब तक खाते रहोगे, कब तक सोते रहोगे या फिर कब तक ये पिकनिक मनाते रहोगे ? कभी दलितों को भी तो अपने घर बुलाओ, उन्हें भी खाना खिलाओ, अपने आलीशान महलों में सोने का अवसर दो. क्योंकि किसी के घर खाना बड़ी बात नहीं है. बल्कि उसे अपने घर पर खिलाना बड़ी बात है. जैसे -जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, राजनेता तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हैं, माग्र अब जनता भी सब जान चुकी है. सिर्फ पाखण्ड और दिखावे के चक्कर में कोई आने वाला नहीं है. अगर राहुल सचमुच दलितों के हितैषी हैं तो उनको चाहिए की वे कांग्रेस कार्यकारिणी और सत्ता में भी उन्हें समुचित भागीदारी दें., तभी उन्हें विश्वाश होगा की राहुल की कथनी-करनी में अंतर नहीं है. यू पी में भले ही दलित अपनी चौखट पर आये किसी भिखारी को टुकड़ा दाल सकते हैं मगर ठप्पा तो उनका हाथी पर ही लगने वाला है