Thursday, July 8, 2010

क्या दलित इंसान नहीं हैं

क्या दलित इंसान नहीं हैं ?

यूनिसेफ के सहयोग से दलित आर्थिक आदोलन और नेशनल कैंपेन आन दलित ह्यूमन राइट्स ने मिलकर एक अध्ययन किया है। यह अध्ययन स्कूलों में दलित बच्चों की स्थिति का जायजा लेने के मकसद से किया गया। इसके नतीजे बेहद चौंकाने वाले हैं।

इस रपट से एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि अभी भी भारत का समाज दलितों के प्रति घृणा का भाव ही रखता है। इस रपट में जिन-जिन राच्यों का अध्ययन किया गया, उन सब राच्यों के स्कूली बच्चों के साथ स्कूल में भेदभाव बस इसलिए किया गया, क्योंकि वे दलित थे। इस रपट में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भेदभाव की वजह से बड़ी संख्या में दलित बच्चे अपने आगे की पढ़ाई बरकरार नहीं रख पाते।इस रपट को चार राच्यों के 94 स्कूलों की हालत का अध्ययन करके तैयार किया गया है। दलित बच्चों के साथ हुए भेदभाव के उदाहरणों से यह रपट भरी पड़ी है। उन उदाहरणों के जरिए एक खास तरह की मानसिकता में जकड़े समाज को समझा जा सकता है। इस रपट को तैयार करने वाले राजस्थान के एक स्कूल में गए। वहा जाकर उन्होंने पूछा कि किस बच्चे को यहा के शिक्षक अक्सर पीटते हैं और क्यों पीटते हैं? इस सवाल का जवाब तुरंत वहा मौजूद बच्चों ने दिया। यह जवाब ऐसा है, जो खुद को सभ्य कहने वाले समाज का असली चेहरा दिखाता है। बच्चों ने इस सवाल के जवाब में तुरंत एक ऐसे बच्चे की ओर इशारा किया, जो दलित था। उन बच्चों ने यह भी कहा कि दलित होने के नाते वह निशाने पर रहता है।

यह मामला केवल राजस्थान का नहीं है। दूसरे राच्यों में भी इसी तरह की स्थिति है। बिहार का उदाहरण लिया जा सकता है।

बिहार की ही एक दलित छात्रा ने बताया कि शिक्षक हम लोगों यानी दलित बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं देते। हमें जमीन पर बैठाया जाता है।

हालात की बदहाली का आलम यह है कि मिड-डे मील में मिलने वाले भोजन में भी दलित छात्रों के साथ भेदभाव बरता जा रहा है। उन्हें जो खाना मिल रहा है, उसकी गुणवत्ता सही नहीं होती है। इसके अलावा दलित बच्चों को भरपेट भोजन भी मिड-डे मील योजना के तहत नहीं मिल रहा है। इस तरह की शिकायत कई बच्चों ने की।

बिहार के दलित बच्चों ने यह भी शिकायत की कि उन्हें कक्षा में सबसे पीछे बैठने को कहा जाता है। इसके अलावा शिक्षक उनका होमवर्क भी नहीं जाचते हैं। इस रपट में यह भी बताया गया है कि ज्यादातर स्कूल वैसी जगहों पर हैं, जो उच्च जाति के लोगों के दबदबे वाला क्षेत्र है। बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में खास तौर पर ऐसी स्थिति है।दलितों की बारात में व्यवधान पैदा करना , दुल्हे को घोड़े पर नहीं बैठने देना ,दलितों को सार्वजनिक रूप से चारपाई पर नहीं बैठने देना आदि पुराने मसले हैं. ताजा मामला उतार प्रदेश का है. यहाँ के रमाबाई नगर स्थित संदलपुर ब्लाक के प्राथमिक विद्यालय जसापुर के सवर्ण बच्चों ने गांव की दलित महिला के हाथ का बना मिड-डे-मील लेने से इंकार कर दिया। लगातार दूसरे दिन खाने से साफ़ इनकार कर दिया गया. इस मामले की जांच अपर जिलाधिकारी (एडीएम) से कराने को कहा है। शिक्षा विभाग की ओर से बीएसए जांच करेंगे। प्राथमिक विद्यालय जसापुर में 135 बच्चे पंजीकृत हैं। इनमें 31 बच्चे दलित, 19 पिछड़े व 85 सामान्य वर्ग के हैं। बताया गया है कि पिछले सत्र में यहां मिड-डे-मील बनाने के लिये दो सवर्ण महिलाओं मीरा व सुमन की तैनाती थी। हाल ही में यहां पर दलित वर्ग की महारानी व शांती को भी खाना बनाने के लिये ग्राम पंचायत द्वारा अधिकृत किया गया। उक्त दलित महिलाओं द्वारा खाना बनाने से यहां के 85 सवर्ण बच्चों ने मंगलवार से मिड-डे-मील लेने से इंकार कर दिया। यह घटना दर्शाती है कि आज भी किस तरह दलित विरोधी मानसिकता फल फूल रही है. इस नफरत का आखिर आधार क्या है ? अगर मामला दो महिलाओं को रोजगार मिलने का होता तो इस स्कूल में पहले से ही दो सवर्ण महिलाएं भोजन बनाने के काम में नियुक्त हैं. लेकिन यह ,मामला छुआछात का है . यह कैसी विडंबना है कि लोग कुत्ते-बिल्लियों को पाल सकते हैं, उनसे प्यार कर सकते हैं , मगर जों लोग सेवा करते हैं, वफादारी करते हैं. श्रम करते हैं उनके स्पर्श से भी कतराते हैं. क्या दलित इंसान नहीं हैं ? इस तरह की घटनाएं सभ्य और स्वस्थ समाज के लिए कलंक हैं. सभी लोगों को मिलकर भारत से इस कलंक को मिटाना होगा . उत्तर प्रदेश की मुख्मंत्री मायावती भी दलित समाज से ताल्लुक रखती हैं , वे इस असमानता के दर्द से भलीभांति परिचित हैं, उनकी स्पष्ट बहुमत की सरकार है. अगर वे अब भी इस जख्म का इलाज नहीं तलाश पाईं तो फिर कभी नहीं तलाश पाएंगी .

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