- मुकेश कुमार मासूम
Friday, May 7, 2010
विचार मंच , ३, जाति आधारित जनगणना का अर्थ
आखिर केन्द्र सरकार अब जाति आधारित जनगणना कराने के लिए राजी हो गयी है.इससे पहले इस मुद्दे पर लोकसभा में खूब हो हंगामा हुआ. राजद नेता लालू प्रसाद को भारतीय जनता पार्टी के नेता अनंत कुमार देश द्रोही तक कह डाला था. बहरहाल अब जाति के आंच पर राजनीतिक रोटियां सकने वाले खूब खुश हुए होंगे. जो लोग जाति की बैसाखियों के सहारे सत्ता की ऊंचाइयां तय करते हैं उनके लिए यह सुनहरा मौक़ा है. जाति के आधार पर यह गणना ऐसे समय की जायेगी , जब देश में हर कोने से जाई तोडो, समाज जोड़ो की मांग की जा रही है. एक तरफ तो जाति के आधार पर राजनीति करने वाले जातीय भेदभाव को सभ्य समाज पर कलंक बताते हैं . समता के नारे बुलंद करते हैं और दूसरी तरफ वे जाति को सहेजना भी चाहते हैं. लालू प्रसाद यादव , मुलायम सिंह यादव और कुछ अन्य नेता हमेशा से जातिवाद के हितैषी रहे हैं. अगर कहीं बुराई का अस्तित्व रहेगा तो वह कहीं न कहीं , किसी न किसी मोड पर खड़ीहुई , बहुत संभव है मुस्कराती हुई मिलेगी . और अगर बुराई मौजूद ही नहीं है . तो उसके दिखने का सवाल ही पैदा नहीं होता. ये मामला ठीक वैसा ही है जैसे शराब के उत्पादन पर रोक लगाने के बजाय उसकी बिक्री पर रोक लगा दी जाए. जाति व्यवस्था एक श्राप की तरह है, अभिशाप की तरह है. यह एक ऐसा रोग है जो एड्स से भी भयंकर है. एड्स के रोग का भले ही सफल इलाज न हो मगर उसकी देख -रेख करने की दवाएं तो माजूद हैं. मगर जातिवाद ऐसा खतरनाक रोग है की इसकी देखभाल वाली दवाएं भी मौजूद नहीं हैं. कुछ वर्ष पहले बहुजन समाज पार्टी के कान्शीराम ने जाति तोडो , समाज जोड़ो आंदोलन शुरू किया था . इसके अंतर्गत बसपा के कार्यकर्ता गाँव -गाँव , गली- गली जाकर जातिवाद के दुष्परिणामों को सभा आदि की माध्यम से उजागर करते थे. उस समय जो कांशीराम की कल्पना थी , वह ये थी की तीन श्रेष्ठ सवर्ण जातियों को छोड़कर सभी जातियां दलित , पीड़ित हैं अर्थात बहुजन समाज के अंतर्गत आती हैं. इस आंदोलन में उन्हें कुछ हद तक ही सही मगर सफलता भी मिली. पिछड़ी जातियां राजनीतिक द्रष्टिकोण से एकजुट हो गयीं लेकिन गौर करने वाली बात ये है की आज भी ये जातियां एक दूसरी जाती से सामाजिक और पारिवारिक रूप में नहीं जुड पाई हैं, यानी की अब भी इनमें रोटी-बेटी बांटनी की प्रथा का प्रचलन नहीं हो पाया है. उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती इससे कुछ कदम आगे बड़ी, साहस का परिचय देते हुए उन्होंने बहुजन समाज पार्टी की मूल अवधारणा ' बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय ' को ही बदलकर रख दिया . नया नारा दिया- ' सर्वजन हिताय , सर्वजन सुखाय ' . इसी नारे का करिश्मा था की बसपा ने उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाई. लेकिन यह बात भी उतनी ही सत्य है की मायावती की यह अवधारणा अभी तक सिर्फ राजनीति तक ही सीमित है . सामाजिक द्रष्टिकोण से आज भी सब कुछ अलग है. आज भी उत्तर प्रदेश और बिहार में दलितों को चारपाई पर नहीं बिठाया जाता. आज भी उन्हें अछूत समझा जाता है, उनके साथ जानवरों से भी बदतर सलूक किया जाता है . ऐसे वक्त में बसपा की राजनीतिक क्रांति को जमीनी क्रान्ति यानी सामाजिक क्रांति में बदलने की जरूरत है और ऐसे वक्त में जातिगत आधार पर जनगणना कराये जाने की बात की जा रही है. लालू प्रसाद यादव के पास बिहार और दिल्ली में अब बचा ही क्या है ? ना बिहार में सरकार है और ना दिल्ली में सरकार में हैं . किसी राजनीतिक शाश्त्री ने कहा भी है की -' जाति और धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले बहुत जल्द सुर्ख़ियों में आते हैं मगर उनका पतन भी उतनी ही जल्दी होता है ' . मुलायम सिंह यादव और लालूप्रसाद यादव आदि के इस नए जाल में शायद कुछ मछलियाँ और फंस जाएँ.
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