Monday, May 31, 2010
निषेध किसका ? तम्बाकू का या लोगों का ?
कल विश्व भर में विश्व तम्बाकू निषेध दिवस मनाया गया. भारत में भी सरकार ने टीवी में विज्ञापन दिए , अखबारों में स्वास्थ्यमंत्रियों के फोटो छपे, सन्देश छपे, वो भी सरकारी खर्चे पर यानि कि विज्ञापन के मद में . और फी सब कुछ हो गया, ऐसा मानकर सरकार ने भुला दिया. अब अगले साल जब यह दिवस आएगा तो करोड़ों खर्च करके फिर से तम्बाकू के विरोध में विज्ञापन प्रकाशित करवा दिए जायेंगे . इससे और कोई फायदा होता हो या नहीं मगर मंत्रियों को अपने फोटो चमकाने का तो अवसर मिल ही जाता है. इससे ज्यादा उन्हें चाहिए भी क्या ? क्योंकि वे खुद जानते हैं कि जिदको एक बार गुटका, तम्बाकू , सिगरेट आदि की लत लग गयी तो उसे छुडाना बहुत मुश्किल होता है. बिलकुल असंभव जैसा. इस यह लत इतनी जानलेवा होती है कि भारत में प्रति वर्ष १ मिलियन लोग इससे मौत के मुंह में समा जाते हैं. भारत में ही सबसे ज्यादा लोग मुंह के कैंसर से पीड़ित हैं. यहाँ पर तम्बाकू का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं की संख्या भी आश्चर्यजनक यानि 5 करोड से ज्यादा है. अनपढ़ , गंवार , गरीब अथवा ग्रामीणों के अलावा शहरों में भी धूम्रपान का खूब चलन है और इसे सामाजिक मान्यता मिली हुई है. बड़े -बड़े शहरों की लड़कियां सिगरेट के धुंए के छल्ले उडाती देखी जा सकती हैं.बच्चे और बड़े गुटका तो ऐसे चबाते हैं जैसे संजीवनी बूटी चबा रहे हों. कुछ देखना भी गवारा नहीं करते . पुडिया का मुंह फाड़ते हैं और सीधे मुंह में डाल लेते हैं. ऐसी दीवानगी का असली जिम्मेदार आखिर कौन है ? को खा रहे हैं, पी रहे हैं, वे और उनके अभिभावक तो है ही , मगर असली खलनायक है सरकार . जब सरकार मंहगा टेक्स लेकर बीडी, सिगरेट , गुटका , तम्बाकू आदि को बनाने और बेचने की अनुमति देती है तो क्या यह नहीं जानती कि इस धूम्रपान की सामग्री का जनता ही इस्तेमाल करेगी , और जब इस्तेमाल करेगी तो उससे रोग भी होंगे ही. अगर सरकार सचमुच लोगों की सेहत के प्रति फिक्रमंद है तो इन सब पर पाबंदी क्यों नहीं लगा दी जाती ? जब पूरी तरह पाबंदी की बात आती है तो कुछ लोग तर्क देते हैं कि इससे राजस्व आता है और राजस्व का आंकडा इतना बड़ा होता है कि सरकार उस घाटे को बर्दाश्त नहीं कर सकती , इसलिए धूम्रपान पर पूर्ण पाबंदी असंभव है . यह तर्क कुछ ऐसा ही लगता है जैसे कोई कहे कि डकैती से भी राजस्व उगाहना शुरू करदो. यानि कि चोरी डकैती के लिए भी सरकार लाइसेंस जारी करने शुरू करदे इससे भी खूब राजस्व आएगा. ना होगा बांस और ना बजेगी बांसुरी . जब तम्बाकू से बनी कोई चीज होगी ही नहीं तो लोग खरीदेंगे कैसे और फिर आखिर में धीरे -धीरे लोग नशे से तौबा कर लेंगे , इसके कई उदाहरण भी सामने हैं. जब से सरकार ने ट्रेन और बस में सिगरेट -बीडी पर रोक लगाई है , तब से जबरदस्त परिवर्तन आया है. अब ट्रेन और बस में बीडी -सिगरेट पीने वाले की संख्या में बहुत कमी आयी है. एक उदाहरण गुजरात का भी दिया जा सकता है . वहां पर शराब पर पूर्ण पाबंदी है . इससे पीने वालों की संख्या में कमी हुई है, जो पुराने पियक्कड हैं , वे गुजरात से दूर पीने जाते हैं मगर पीने में कमी तो आई, और महत्वपूर्ण बात ये है कि कम से कम नए लड़के तो बेवडे नहीं बन रहे , क्यों कि न वो शराब को अपने -इर्द -गिर्द देखते हैं और न ही आदत लगती है. गुजरात को शराब से प्राप्त होने वाला राजस्व न मिल पाने के कारण कोई परेशानी भी नहीं , इसलिए अगर कोई यह दलील देता है है कि शराब या धूम्रपान बंदी से सरकारें कंगाल हो जायेंगी , यह बात सही नहीं है. अगर सरकार वाकी गंभीर है तो उसे सभी तरह के धूम्रपान, तम्बाकू उत्पाद , अल्कोहल आदि पर सख्ती के साथ पाबंदी लगा देनी चाहिए , वरना लोग यही समझेंगे कि धूम्रपान उत्पाद बनाने वाले व्यापारियों को आर्थिक फायदा पहुचाने के लिए ही इस पर पाबंदी नहीं लागाई जाति . सब जानते हैं कि केन्द्र सरकार में केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल भी बड़े बीडी व्यवसाई हैं, उनकी बहुत बड़ी कंपनियां हैं. ऐसे कई कारण हैं जिनसे लोगों को लगता है कि सरकार धूम्रपान का निषेध नहीं कर रही, बल्कि लोगों का निषेध कर रही है. धूम्रपान के विरोध का तो महज दिखावा किया जा रहा है .
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