कहीं की ईंट , कहीं का रोड़ा
प्रकाश झा अच्छे फिल्म मेकर हैं , अब तक वे सार्थक फ़िल्में बनाते आये हैं, मगर इस बार उन्होंने दर्शकों के साथ ही राजनीति कर डाली है. घिसी -पिटी कहानी, प्रभावहीन संगीत और गाने के नाम पर टुकड़े-टुकड़े कुछ मुखड़े . बेचने का पूरा मसाला मौजूद . कई दीर्घ होठों के चुम्बन. सी ग्रेड टाइप बेड रूम द्रश्य, जिनकी प्रकाश झा से अपेक्षा नहीं की जा सकती , और सबसे बड़ी बात ये कि इस मसाले को बेचने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नाम का इस्तेमाल , इससे बस इतना ही फायदा मिला कि अखबार , टी.वी. में प्रचार हो गया. कुछ टी.वी. अखबारों में समीक्षा की सेटिंग करके फिल्म को तीन और कहीं ज्यादा स्टार दिलवा दिए , कुल मिलाकर फिल्म के अंदर राजनीति बहुत कम और बाहर बहुत ज्यादा की गयी.फिल्म देखने के बाद लोग खुद को ठगा सा महसूस करते हैं. अश्लील द्रश्य, हिंसा , साजिस और इसके अलावा कुछ नहीं . कहानी ऐसी घटिया कि लिखने वाले पर तरस आये , स्क्रीन प्ले ऐसा कि सर दुखने लगे. नामचीन कलाकारों के जमघट के सिवाय कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं. जब तक कोई फिल्म रिलीज नहीं हो पाति तब तक प्रोडक्शन टीम के अलावा किसीको भी यह जानकारे नहीं होती कि फिल्म के अंदर किस तरह के द्रश्य हैं, टीम के लोग भी बस अपना काम भर जानते हैं, साथ ही यह भी जानते हैं कि उन्होंने जितना काम किया है , उसमे से कितना रहेगा , कितना बचेगा यह सिर्फ एडिटर और डायरेक्टर जानता है , फिर कांग्रेस के छुटभैया नेताओं को कैसे पता चला कि 'राजनीति ' में कैटरीना कैफ का किरदार सोनिया गांधी से मिलता जुलता है . जबकि सच्चाई ये है कि बिलकुल है भी नहीं. जाहिर सी बात है कि इस विवाद को खुद प्रकाश झा ने खुद जन्म दिया , और इसे पाला पोसा भी , ताकि मुफ्त की पब्लिसिटी मिल सके और लोग भ्रमित होकर सोनिया गांधी की फिल्म देखने दौड़े चले आयें. सोनिया गांधी इटली की रहने वाली हैं. उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी से विवाह किया और लिट्टे के आतंकियों के हमले में जब वे शहीद हो गए तो कालान्तर में सोनिया गांधी को कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. उन्होंने उस समय एक महान त्याग का परिचय दिया जब उन्होंने प्रधानमंत्री के पद को ठुकरा दिया . जबकि प्रकाश झा की 'राजनीति' का चरित्र अर्थात कैटरीना कैफ अर्थात इंदु के पति की ह्त्या के बाद उन्हें क्षेत्रीय पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाता है. स्पष्ट बहुमत के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बानाया जाता है. अगर किसी फिल्म में किसी विधवा को नेता के तौर पर दिखाया जाता है तो क्या वह प्रसंग सोनिया गांधी से ही जुडा होगा ? फिर कांग्रेस के छुटभैया नेता इस फिल्म पर बवाल क्यों मकाहा रहे थे ? कहीं उनके साथ भी तो किसी तरह की कोई 'राजनीतिक' डील तो नहीं की गयी थी?
फिल्म की शुरुआत वामपंथी नेता भास्कर सान्याल (नसीरुद्दीन शाह) से होती है। उसके इस अंदाज पर विपक्षी दल की नेता की बेटी भारती (निखिला त्रिखा) भी वामपंथ की धारा में शामिल हो जाती है। भास्कर और भारती में एक दिन संबंध बन जाते हैं, भास्कर इसे अपनी बड़ी भूल मानता है और वनवास पर निकल जाता है। भारती एक बेटे को जन्म देती है लेकिन उसका भाई ब्रज गोपाल (नाना पाटेकर) उसे मंदिर में छोड़ आता है। इस बीच भारती का विवाह जबरन एक राजनैतिक परिवार में कर दी जाती है। लेकिन इस परिवार में सत्ता का संघर्ष उस समय शुरु हो जाता है जब परिवार के मुखिया को लकवा मार जाता है और राष्ट्रवादी पार्टी की बागडोर भारती के पति को मिल जाती है लेकिन इस बात को उसका देवर वीरेंद्र प्रताप (मनोज वाजपेयी) पसंद नहीं करता है।
यहीं से राजनीति छल कपट का एक दौर शुरु होता है जिसमें एक तरफ वीरेंद्र और उसका दोस्त सूरज (अजय देवगन) होते है तो दूसरी तरफ भारती के पति और उसके दो बेटे पृथ्वी (अर्जुन रामपाल) और समर प्रताप (रणबीर कपूर) के बीच राजनीतिक शह और मात का खेल शुरु होता है। फिल्म में समर प्रताप (रणबीर कपूर) से (इंदू) कैटरीना एक तरफा प्यार करती है लेकिन उसका विवाह बाद में उसके भाई पृथ्वी(अर्जुन रामपाल)के साथ होता है। चुनावी मौसम में शह और मात के बीच वोटों की शतरंजी बिसात पर रक्तपात के साथ पिरोया गया है ।
यहीं से राजनीति छल कपट का एक दौर शुरु होता है जिसमें एक तरफ वीरेंद्र और उसका दोस्त सूरज (अजय देवगन) होते है तो दूसरी तरफ भारती के पति और उसके दो बेटे पृथ्वी (अर्जुन रामपाल) और समर प्रताप (रणबीर कपूर) के बीच राजनीतिक शह और मात का खेल शुरु होता है। फिल्म में समर प्रताप (रणबीर कपूर) से (इंदू) कैटरीना एक तरफा प्यार करती है लेकिन उसका विवाह बाद में उसके भाई पृथ्वी(अर्जुन रामपाल)के साथ होता है। चुनावी मौसम में शह और मात के बीच वोटों की शतरंजी बिसात पर रक्तपात के साथ पिरोया गया है ।
उधर सूरज को एक दलित परिवार पालता है. उसे वीरेंद्र प्रताप अचानक पार्टी का राष्ट्रीय सचिव और केन्द्रीय चुनाव समिति का सदस्य बना देता है, जो कभी संभव नहीं. जो प्राथमिक सदस्य भी न हो , उसे प्रकाश झा ही झटके में इतना बड़ा पद दिला सकते हैं. जब प्रथ्वी अपनी अलग पार्टी जनशक्ति पार्टी बना लेता है ( प्रकाश झा खुद भी बिहार से रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी से सांसद का चुनाव लड़कर हार चुके हैं, यह उसीसे मिलता-जुलता नाम है ) तब प्रथ्वी सेटिंग करके प्रथ्वी की पार्टी के १७ उम्मीदवारों के के पर्चे रद्द करवा देता है. और वीरेंद्र प्रताप कुछ नहीं करता , बस उम्मीदवारों को धक्के मारकर भगा देता है. जबकि यह वास्तविकता नहीं है. जब कोई भी पार्टी अपने उम्मीदवार की टिकट तय करती है तो उससे पहले उसके सारे कागजात जमा करवाती है . फार्म भरके कई बार विशेसज्ञों द्वारा उसे चेक करवाया जाता है. इसके बाद भी एक डमी कैंडीडेट का फ़ार्म भरवाया जाता है ताकि किसी कारणवश फ़ार्म रद्द हो गया तो दुसरा उम्मीदवार पार्टी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ सकता है. ए .बी फ़ार्म में यह सुविधा उपलब्ध रहती है. अगर दुर्भाग्यवश दूसरे उम्मीदवार का फ़ार्म भी रद्द हो गया या उसने नाम वापस ले भी लिया तो पार्टी उस सीट पर किसी ऐसे उम्मीदवार को सपोर्ट कर देती है , जो उनकी प्रतिद्वंदी पार्टी के उम्मीदवार को हराने की क्षमता रखता हो .ऐसे कई पॉइंट हैं जो इस फिल्म को वास्तविकता से दूर ही रखते हैं,कहीं की ईंट , कहीं का रोड़ा , भानुमती ने कुनबा जोड़ा . जैसा हिसाब -किताब है . मुख्य बात ये है कि दर्शकों को गुमराह नहीं करना चाहिए , उन्हें थोड़ा सा तो आभास हो कि वे समय और पैसा किसके लिए खर्च करने जा रहे हैं ?
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