Thursday, June 3, 2010

इस भ्रष्टाचार के रोग का भी कोई इलाज है क्या ?
आज हाल ये है कि आप किसी भी सरकारी विभाग में चले जाइए , वहाँ पर आप बिना रिश्वत कोई काम नहीं करवा सकते , चाहे कितनी भी बड़ी सिफारिश क्यों न हो , आप कितने भी बड़े तुर्रमखाँ क्यों न हों अगर आपको अपना कम जल्दी करवाना है तो सुविधा शुल्क देना ही होगा. या फिर आप तैयार हो जाइए एक कभी न खत्म होने वाले प्रोसीजर को पूरा करने के लिए .कोई भी विभाग अछूता नहीं है . जिस गुजरात के सुशासन की लोग तारीफ़ करते नहीं थकते , वहाँ का हाल ये है कि पुलिसवाले डायरेक्ट मुख्यमंत्री के नाम से रिश्वत मांगते हैं. एक बार मै परिवार सहित सड़क मार्ग से दिल्ली जा रहा था . गांधीनगर में एक पुलिसवाले ने गाड़ी रुकवादी , ड्राइवर ने पुलिसवाले की डिमांड के अनुसार सारे कागजात दिखा दिए . उसने अपना ड्राइविंग लाइसेंस दिखाया, गाड़ी के पेपर दिखाए . सब कुछ ठीक था. पुलिसवाला चक्कर में पड़ गया. उसने स्कोर्पियो के दो चक्कर लगाए , कहीं कुछ कमी नजर नहीं आई. फिर कुछ याद करते हुए बोला. आपका चालान काटना पड़ेगा. निकालिए दो हजार रुपये . ड्राइवर भीड़ गया -' जब सारे कागजात ओके हैं, तो चालान किस बात का ? ' पुलिसवाला एक कागज़ पर कुछ लिखता रहा , फिर बोला-'ठीक है , दो हजार नहीं देना चाहते तो ५०० दे दो , मै संभाल लूंगा , ये एंट्री फीस है , देनी ही पड़ती है. आप लोग नहीं दोगे तो हम नरेंद्र मोदी को कैसे देंगे , घर से तो देने से रहे' . मै हैरत में था. एक पुलिसवाला रोड पर खड़े होकर सरेआम मुख्यमंत्री के नाम पर रिश्वत मांग रहा था. जब उसे ड्राइवर ने मेरे बारे में बताया तो वह बेशर्मी से बोला- 'तो ठीक है, आप प्रेस में हैं तो सौ रुपये दे दें , लूंगा तो जरूर . आगे आपकी मर्जी. अगर किसी से शिकायत करनी हो तो शौक से कर सकते हैं. सब आपको यही सलाह देंगे कि मामला वहीँ निपटा लेते तो अच्छा होता ' . इससे समझा जा सकता है कि रिश्वतखोरी का यह रोग किस हद तक मजबूत हो चुका है .ऐसा नहीं है कि अकेले पुलिस विभाग में ही भ्रष्टाचार फैला है , चाहे राशनिंग विभाग हो, महानगर पालिका हो, राजस्व , आबकारी विभाग हो, रेलवे विभाग हो , तहसील , कलेक्टर कार्यालय हो या फिर कोर्ट , हर जगह लूट की स्पर्धा लगी है . लोग बढ़ चढ़कर लूटने पर आमाडा हैं. जहाँ आप न्याय की आश करते हो उस न्याय के मंदिर अर्थात अदालत का भी हाल ये है कि जब तक आप क्लर्क को सुविधाशुल्क नहीं देते तब तक वहां किसी काम की उम्मीद करना बेकार है . यहाँ तक कि तारीख लेने के लिए भी आपको 'सेवा ' करनी ही पड़ती है.इसी तरह राष्ट्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया के महत्त्वपूर्ण अंग अखबार के रेजिस्ट्रेशन कराने में भी कितने ही पापड बेलो मगर बिना लिए -दिए जल्दी काम नहीं होता . शुरुआत प्रेस रजिस्ट्रार के चपरासी और क्लर्कों से ही हो जाती है. और बाद में आर के पुरम, दिल्ली ( आर एन आई ऑफिस )के नखरे झेलने पड़ते हैं. अगर 'सेवा ' देते हो तब कोई दिक्कत नहीं आएगी . जो अखबार वाला यह सोचकर प्रकाशन शुरू करना चाहता है कि वह अपने अखबार के माध्यम से जुल्म के खिलाफ आवाज उठाएगा, भ्रष्टाचारियों के बेनकाब करेगा, उसे शुरुआत में ही रिश्वत देनी पड़ती है. जब स्वर्गीय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने स्वीकार किया था कि दिल्ली से योजनाओं के लिए जो रकम भेजी जाति है , वास्तविक स्थान तक उसमे से सिर्फ १५ प्रतिशत हिस्सा ही पहुच पाता है , शेष रकम रिश्वतखोरों के पेट में ही जाती है . मुझे लगता है अब तो मुश्किल से ५ प्रतिशत रकम ही सही स्थान तक पहुचती होगी बाकी भ्रष्टाचारियों के पास पहुँच जाती है.सरकारी कर्मचारी सफाई देते हैं कि उन्हें अधिकारियों को हिस्सा देना पड़ता है और अधिकारी कहते हैं कि उन्हें मंत्रियों को 'हिस्सा ' पहचाना पड़ता है . इस भ्रष्टाचार की चक्की में वो गरीब , किसान, मजदूर और आम लोग ज्यादा पिस रहे हैं जो न तो सिफारिश लगा सकते हैं और ना ही रिश्वत देने की स्थिति में हैं. जब तक कोई भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई ठोस अभियान नहीं चालाया जाएगा तब तक इस रोग का इलाज मुश्किल है. जब सरकारी नौकरी के लिए कोई फ़ार्म भरता है तो उसी वक्त उससे उसकी संपत्ति का ब्यौरा मांगना चाहिए और हर साल किसी आयोग से उसकी जांच करवानी चाहिए. जिस तरह सरकारी कर्मचारी को हर साल रिटर्न फ़ाइल करना जरूरी होता है, उसी प्रकार हर सरकारी कर्मचारी से प्रति वर्ष उसकी संपत्ति के बारे में जानकारी लेनी चाहिए . मगर सवाल ये है कि ऐसा करे कौन ? जब डॉक्टर ही रिश्वत के इस रोग से पीड़ित हैं तो इलाज कौन करे ?













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